Monday, January 13, 2014

पतंगे

(1)
इठलाती सी लहराती सी
मद्दम मद्दम इतराती सी
उठती हैं रंगीन पतंगे,
नभ नें मिलने मधुमासी सी

(2)
मैं प्रीतम तुम मेरी प्रेयसी
फिर तेरी मेरी दूरी कैसी!
मिलने को आतुर पतंगे
नहीं जानती किस्मत कैसी?  

(3)
जहाँ होता है प्रभु का वास
कहो गगन अम्बर आकाश
लड़ती हैं सरल पतंगे, सब
इंसानी चालो का प्रयास !


Monday, January 6, 2014

मोक्ष

चर्चा होती है,
गलियों में, मोहल्लों में, चौराहो पर
खरे वादो की, सपनो की, सुनहरे कल की
और फिर,
उमड़ पड़ता है जन शैलाव
धधक उठता है इंकलाब !

फिर एक दिन,
प्राची से उगने वाला पुराना सूरज
नई रश्मियों को जन्म देता है
रात रानी- सुमन दिन भर चहकते हैं
आक के फूल भी गुलाब से महकते है
संवेदनाओ के लहू से सिंचित इंकलाब,
पहुँच जाता है सत्ता की कुर्सी पर !

परन्तु, सत्ता संवेदनाओ से नहीं चलती
वरन उसको जरुरत होती है विवेक की
बैठ जाता है कोई भारी भरकम बुद्धिजीवी,
फिर इंकलाब के ऊपर विवेकी बन  कर
इंकलाब दम तोड़ देता है
फिर से जन्म लेने को
फिर से मोक्ष पाने को !


जरुरत नही है ...

  मुझे अब तेरी जरुरत नहीं है तेरे प्यार की भी ख्वाहिश नहीं है कहानी थी एक जिसके किरदार तुम थे कहानी थी एक  जिसके किरदार हम थे अपना हिस्सा बख...