Wednesday, December 11, 2013

आज का सपना

आज सुबह उठा तो, सबसे पहले मैंने लैपटॉप खोला औऱ लिखने बैठ गया. आज का सपना. शायद ऐसी कोई नींद नहीं जिसमे सपने आये हो. पर आज का सपना थोडा अलग सा था कि मैंने इसे लिखना बेहतर समझा
मेरी बहन के कहने पर मैं उस अनजान शहर में आया था. उसको किसी धार्मिक rally में शामिल होना था. ये तो मुझे याद नहीं कि उस शहर तक हमे ट्रैन ने पहुचाया था या बस ने. हां, इतना जरुर याद है कि ट्रैन भी उस यात्रा का हिस्सा रही थी. कुछ सामन मैं ट्रैन में भूल गया था. जब तक मुझे याद आया, ट्रैन जा चुकी थी. औरे उसके बाद scene बदल जाता है. सपने होते ही ऐसे हैं. बिखरे हुए से, अधूरे से, वै कुछ भी, समझ से परे. और उस नए scene के साथ ही मैं अपनी अपनी बहन के साथ इस नए शहर की चौखट पर खड़ा थाकीचड भरी सड़को ने मेरा स्वागत किया समाज की जिम्मेदारी और सरकार की मक्कारी का नमूना बखूबी पेश किया. तभी मेरी बहन ने बैग से एक address निकाला और 'यहाँ जाना है' कहते हुए मेरे हाथ में थमा दिया.
थोड़ी देर में कीचड भरी सड़क को कूदते फांदते उस पते पर पहुच गए. एक औरत ने दरवाजा खोला. मैं तो नहीं जानता था पर मेरी बहन उन्हें जानती थी और पहली बार इल रही थी. कोई दूर की जान पहिचान थीमैं उसको वहाँ छोड़कर, नए शहर बदतर सड़को पे चलने लगा. Scene बदला. मुझे एक पुराना दोस्त मिला. वो भी उसी शहर में रहता था. मुझे नहीं पता था. वो मुझे अपने घर ले गया जहाँ पहले से ही और दोस्त लोग बैठे थे. आधा दर्जन से ऊपर. शायद सब मेरे इंतज़ार में. उन सब के चेहरे अभी भी याद हैं. उनकी बाते भी याद हैं. उठने के बाद भी दिल में एक ताज़ी ख़ुशी अभी भी बरकरार है. चाहे सपने में ही मिला, पर मिलकर अच्छा लगा था. feeling तो अभी भी ऐसी ही है जैसे वास्तव में उन सब को गले से कस के रहा हूँ. ऐसे अनुभव कभी कभी एहसास कराते हैं की ये जिंदगी भी कोई एक सपना मात्र तो नहीं. खैर ! Scene  फिर से बदला, दोस्तों को bye बोल चुका था. शाम का वक़्त होने को था और मैं फिर किसी अनजान बसती की अनजान गली में घूम रहा था. तभी अचानक एक शोर सुनाई दिया. लोगो के चीखने चिल्लाने की आवाज़. एक बड़ा झुण्ड बढ़ा चला रहा था गली की ओर, मेरी ओर. झुण्ड को देख ये समझने में कुछ देर लगी की ये धार्मिक कसाइयों का समूह था. गली में खेलते बच्चो को अपनी ओर खीचा ओर पास वाले घर में घुस गया. भले ही झुण्ड का रंग मेरे मस्तिष्क से मेल खाता हो, पर मैंने धार्मिक कायर होना बेहतर समझा ओर अंदर से कुण्डी लगा ली. औऱ करता भी क्याआगे क्या हुआ मुझे याद नहीं. हाँ, बस मुझे मेरी बहन की चिंता थी क्योंकि उस वक़्त वो किसी rally में रही होगी. मैं उसकी सलामती के लिए बस भगवान् से दुआएं मांग सकता था. औऱ मुझे कुछ याद नहीं. ही बेबस चीखें, ही वो बर्बर दृश्य. शायद मेरे कान वो चीखे नहीं सुनना चाहते थे औऱ ही आँखे उस नृशंश मंजर को बेबसी से निहारना जो धर्म के नाम पर जन्मा होगा
Scene फिर से बदल जाता है. मैं एक बड़ी सी बिल्डिंग के अंदर हूँ. शायद कोई सरकारी संसथान, कोई स्कूल या कुछ ऐसा ही. वो एक राहत शिविर था, बेबस भाग्यवानों के लिए. नए शहर ने जहाँ मुझे बेबस होने का एहसास कराया, तो दूसरी औऱ दंगो की बजह से मैं भाग्यवान महसूस कर रहा था. आखिरकार मैं जिन्दा था. मैं उसके बारे में सोच ही रहा था कि उस जमावड़े में मैंने अपनी बहन को पा लिया. ज़िंदा. सुरक्षित. मैं खुश थाऔऱ दूसरे पल ही एक औऱ चेहरा उन सब लोगो में नज़र आया. एक लड़की, जिसको मैं  कुछ साल पहले ही मिला था. ये वो ही लड़की थी जिसकी पहली झलक ने ही मुझे प्रेम नामक तरंग का ज्ञान कराया था. जिसको देखते ही दिल कि ख़ुशी मुस्कराते होंठो से खुद--खुद बयां हो जाती थी. सपने में भी तो कुछ कुछ हमारे दिनों जैसे ही होते हैं. औऱ सपने में भी मैं उस तरंग को अपने भीतर संचरित होने से इंकार नहीं कर पाया. मैं मुस्करा रहा था. उसने भी मुस्करा कर मेरी मुस्कान का जबाब दे दिया. हमेशा कि तरह, आज भी बस इतनी सी ही बात हुई हम दोनों में. यह जानते हुए भी कि she is not available, she already have a boyfriend, मैं यह सोचते हुए मुस्करा रहा था -"कि जो भी हुआ अच्छा हुआ."
औऱ फिर मोबाइल के अलार्म ने मुझे नींद से जगा दिया.
उठने के बाद भी सब कुछ दिमाग में चल रहा था. सबसे ज्यादा याद था तो उसकी मुस्कान औऱ मेरा casual way में कह देना कि जो भी हुआ अच्छा हुआ. भले ही यह एक सपना था, पर जो भी हुआ था अच्छा नहीं हुआ था. कितने बेक़सूर लोग मारे गए होंगे उस दंगे में.
आखिर मुझे मिला क्या कि मैंने जो भी हुआ अच्छा हुआ वाली धारणा को स्वीकार कर लिया? बस दिल को गुदगुदाने वाला एक एहसास! औऱ इस हल्के से अहसास के लिए, जिसे मैं समझता हूँ कि झूट अहसास या छलावा कहना उचित होगा, मैंने उस निंदनीय घटना को  सही ठहरा दिया.

तब मेरे अंदर अनेक विचार उमड़ने लगते हैं. क्या आज का धर्म भी एक अहसास मात्र तो नहीं? या धर्मं को हम दिल को गुदगुदाने को उपकरण समझ बैठे हैं? धर्म का असली रूप पहचानने कि जरूरत. धर्म एक छलावा मत बनने दो.

4 comments:

  1. hmmm....not bad !!
    you're going good. just a few more thoughts or may be a little different topic.
    i'm waiting to read even better and i believe you can and you will write much better than this.
    good luck bro :)

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  2. Thanks Manudi.. it was a mere dream.. so i didnt want to exaggerate it.. so i wrote it so plain...

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