Tuesday, November 15, 2011

झूट की बुनियाद पर बनते रिश्ते



शाम ढल रही थी. ये ही कोई छः साडे छः का वक़्त था. पिछले दो घंटो से लगातार बारिश हो रही थी और इसके रुकने के कोई आसार भी मुझको दिख नहीं रहे थे. खैर मैं तो दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफोर्म नंबर पर अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहा था. फिर बारिश की किसे चिन्ता. और तभी अनौन्स्मेंट हुआ की मेरी ट्रेन समय से एक घंटा लेट है. फिर क्या था! एक और घंटा काटना था उस प्लेटफोर्म पर. यात्रियों की चहल पहल का शौर और उधर बारिश की रिमझिम. जैसे बारिश ने कितने यात्रियों को अपाहिज बना दिया हो, एक तरफ घर जाने का मन तो दूसरी तरफ बारिश में भीगने की चिन्ता. कुछ यात्रियों ने कर लिया था परिस्थितियों से समझौता और बैठ गए वही प्लेटफोर्म नंबर पर, बारिश के रुकने के इंतजार में. और कुछ निकल पड़े अपने अपने घरों को बारिश में ही.
जहाँ एक तरफ परिस्थितियों से समझौता कर लेना समझदारी की निशानी होती है तो वहीँ दूसरी तरफ हार की. और कभी कभी आने वाली परिस्थितियां वर्तमान परिस्थितियों से समझौता नहीं करने को कर देती हैं मजबूर. फिर भला उन में कौन समझदार, कौन मजबूर और कौन हार स्वीकारने वाला, क्या पता.
खैर मुझे तो एक और घंटा व्यतीत करना था स्टेशन के उस प्लेटफोर्म पर. फिर बैठने के लिए सीट मिल जाये तो आराम से बैठ के देखूं बारिश के साथ साथ प्लेटफोर्म की हलचल. शायद मेरी किस्मत अच्छी थी कि तभी मेरे सामने वाली बेंच से एक महाजन उठे. फिर क्या था मुझे मिल गयी सीट. मेरा ध्यान उस लड़की पर गया जो मेरी साइड में बैठी थी दो बड़े बड़े बैग लिए. उम्र उसकी ये ही रही होगी कुछ २४-२५. मैंने उसकी तरफ देखा. एक सुन्दर चेहरा लेकिन एक चिन्ता एक परेशानी की लकीरें उसके चेहरे पर साफ़ नज़र रही थी. जाने कौन सी चिन्ता, कौन सी परेशानी उसे उदास किये हुई थी. उसके बैग पर लगा अमेरिकेन टूरिस्टर का टैग और उसके पहनावे के ढंग से उसका पढ़ा लिखा होना खुद खुद सावित था. अगले ही पल मेरा ध्यान उसके पैरों पर गया. पैरों में उसने बिछ्वे  पहने हुए थे. और मेरी अगली ही नज़र उसकी मांग में सिंदूर ढूंडने लगी. मेरी नज़र को निराश होना पड़ा, वहाँ सिंदूर का नामों निशान भी था. खैर आजकल फैशन और मॉडर्न युग में रिश्ते बदल जाते हैं फिर बेचारे सिंदूर की क्या औकात. शायद सिंदूर बूढा हो चला है फिर भला कैसे दौड़ सकता है ये फैशन की रेस में. जब आज के वक्त में बूढ़े माँ बाप को लोग अपने साथ नहीं रख सकते फिर सिंदूर का बौझ क्यों उठाये एक नारी. और बैसे भी सिंदूर ठहरा बेजान. बेचारा बेजान सिंदूर. खैर एक बात तो साफ़ हो गयी थी कि उसकी शादी हो चुकी थी.
मैं उसकी उदासी का कारण जानना चाहता था इसलिए फिर मुझे ही कही से बात स्टार्ट करनी थी.
'आप किस ट्रेन की इंतजार कर रही हो?'
'मेरे परेंट्स रहे हैं मुझे लेने.'
आप दिल्ली में रहती हैं?'
'नहीं.'
फिर दो चार मिनट ही बात हुई होगी की मैंने सीधे उनकी उदासी का सबब पूछ डाला. फिर क्या था मुझे जल्दी ही एहसास हो गया कि मैंने कोई गलत सवाल कर दिया था उनसे. जैसे मैंने उनकी किसी दुखती नब्ज़ पर हाथ रख दिया हो. हल्का सा पानी उसकी आँखों में भर आया लेकिन अगले ही पल बड़े सलीके से हर नारी कि तरह अपने आसुओं को छुपाते हुए उसने कह दिया- 'कुछ नहीं, बस इसे ही.'
'ठीक है, कोई बात नहीं. कोई पर्सनल रीजन हो सकता है कि तुम मुझे नहीं बताना चाहती.'
और कुछ देर के लिए प्लेटफोर्म के शौर में हम दोनों शांति प्रिय प्राणी बन गए. दोनों चुपचाप देखने लगे बारिश की शरारत. और इसी बीच मैंने फिर एक सवाल पूछ डाला उनसे-
'कि आप कही पढ़ रही हैं या जॉब करती हैं?'
'नहीं, मेरी शादी हो चुकी है.' और इस बार उसके आंसू छुपे रहे.
अब मुझे सारी बाते क्लेअर हो गयी और मैं इस सेंसीटिवे मुद्दे पर ज्यादा चर्चा नहीं करना चाहता था. अब मैं दो ही कारण सोच सकता था उनकी उदासी के जो कि उनकी शादी से जुडी थी. या तो ससुराल में बुरा वर्ताव या फिर दहेज़ कि मांग. इससे पहले कि मैं कुछ सोच पाता या बोलता- 'मेरी शादी को पांच महीने हो चुके हैं'-वो मुझसे कह रही थी. मैंने उसकी तरफ देखा जैसे वो अपने मन में छुपी कोई बात किसी से कहना चाहती थी और शायद अब उसके पास मैं ही था.
'हाँ मेरी शादी को पांच महीने हो गए हैं और शायद मेरी किस्मत में ही ये लिखा था.'
'किस्मत!'
और उसने अपनी पूरी कहानी सुना डाली. 'मेरी शादी एक सॉफ्टवेर इंजिनियर से हुई थी. लेकिन शादी के कुछ महीनो बाद मुझे पाता चला कि उसका इंजीनियरिंग से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है. वो एक मॉल में एक कंप्यूटर शॉप पर काम करता है. और इससे बड़ा खेल क्या खेल सकती थी मेरी किस्मत. जिस रिश्ते कि बुनियाद ही झूट पर टिकी हो वो आखिर कितनी दूर तक जा सकता है. एक दिन तो उसे टूटना ही होता है और शायद मेरे लिए आज वो ही दिन. घर जा रही हूँ अपने. आखिर किसको दोष दूं, अपने परेंट्स को जिन्होंने धोखा खाया या अपने ससुराल को जिन्होंने धोखा दिया. किसी को भी इलज़ाम दूं दर्द तो मुझे ही होगा.'
 अब मैं कह भी क्या सकता था उसके सामने परिस्थितियां ही ऐसी थी. या तो वह समझौता कर सकती थी या तोड़ दे उस रिश्ते को. फिर करे एक नयी शुरुवात भुलाकर सब कुछ जो भी धोखा उसे मिला. जहाँ समझौता करने का मतलब था एक ऐसे रिश्ते का निर्माण करने की कोशिश जिसकी नीव में ही दम था और दूसरी ओर एक नयी शुरुवात क्या इतनी आसन थी?
खैर अब उससे क्या कहूँ, ये दोनों बातें आसन तो नहीं हैं, ये मैं भी जानता था. लेकिन एक नयी शुरुवात करना मेरे लिए ज्यादा तार्किक विकल्प था. लेकिन वह तो अपना विकल्प पहले ही चुन चुकी थी. जो कि उसने यह कह कर स्पष्ट कर दिया था कि वो अब दूसरी शादी नहीं करेगी. वह दोबारा धोखा नहीं खाना चाहती. मैं कुछ बोल पाया. इतने में मेरी ट्रेन भी प्लेटफोर्म पर लग चुकी थी. 'भगवन से चाहता हूँ कि आपकी किस्मत आगे कभी शिकायत का मौका दे'- ये कह कर मैं अपनी ट्रेन की ओर चल दिया.

PS- This is my first attempt for hindi story writing. It's based on true story. plot has been changed.

2 comments:

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