Wednesday, January 1, 2020

विरह

दिसंबर की सर्द शाम में,
उतार लिए थे दस्ताने तुमने
और उन्हें रख लिया था,
अपनी जैकेट के पॉकेट में।

आंखों में भरकर एक रहस्य
बड़ी पहेली, अनसुलझा सा,
मेरे सिल्ली से सुन्न हाथों को 
फिर तुमने थाम लिया था
जब मैंने पूछा- ये विरह क्यों?

जितना था मैं रोक सका
फिर भी कुछ छींटे अश्रु बनकर
आ गालों पर बैठ गयी
उर में झरते निर्झर से छल कर।

तुम मौसम की तरह जमी रहीं
एक आंसू न आंखों से पिघला
मन को तुमने बांध लिया था,
मैं टूट गया था जैसे अबला।

कितनी आसानी से सब कुछ
बदल लिया अपने को तुमने
माना साझा की थी शामें
हँस हँसकर कितनी ही हमने।

चेहरे से स्मित चिन्हों को,
या विरह के दुख, दर्दों को,
उर के घटते बढ़ते स्पंदनों को,
या वेकल साँसों के जन्मों को,
सब कुछ मिटा दिया था तुमने।

बिन पूछे, तुम पूछ रहीं थी- तुम कौन?
मैं फिर से अनजान खड़ा था, मौन।

'मेरे' से 'अनजान' बनाने के करतब में
सब कुछ सही किया तुमने, मेरे हमदम
पर शायद तुम धोना भूल गयी थी
अपने नर्म नर्म हाथों से 'अपनापन'।

                    --- राहुल राजपूत


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