Thursday, December 27, 2012

मुझे मालूम है...



नहीं चाहता  
पुनर्जन्म की कोई वेदना हो
नहीं चाहता
बनू इन्सां, ताकि खेद ना हो
नहीं चाहता
हृदय मैं, ताकि आवेग ना हो 
नहीं चाहता
मुझमे बाकि कोई संवेदना हो

सभ्यता की चाक पर ढाला गया हूँ, पर 
मेरी औकात, मुझे मालूम है
मंदिर में व मस्जिद में रोज़ जाता हूँ, पर
मेरी फरियाद, मुझे मालूम है 
चैनऔ- अमन के गीत रोज़ गता हूँ, पर
अल्फाज़ गूंगे, मुझे मालूम है
शराफत के लिबासो को रोज़ धोता हूँ, पर 
आईने का सच, मुझे मालूम है
तम भगाने को उजाले रोज़ करता हूँ, पर
नजर--सिया, मुझे मालूम है 
इन्सां होने पर सदा मैं नाज़ करता हूँ, पर
इंसानी जात,  मुझे मालूम है
पुनः जन्म लेने से इनकार करता हूँ, पर
मेरे अपराध, मुझे मालूम हैं
ऐसे युग में खुदा पर भी संदेह करता हूँ, पर
उसकी मेहर, मुझे मालूम है

अ-खुदा! मैं फरियाद करता हूँ,  बना देना  मुझे  कुछ  भी
बगिया की क्यारी, ओस, बादल, पेड़, पत्थर, समंदर, नदी
जंगल की झाड़ी, सूरज की लाली, या पहाड़ सा एकाकी
फरियाद करता हूँ,  बना  देना इंसानी देह के सिवा कुछ भी

*Written on 16 dec'12. distraught by the incident of gang rape happened in the capital, Delhi.


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