सपनों की दूबे उगती हैं
मेरे भी अंतर मन में
करने को आबाद मेरे यथार्थ को!
या करने को बर्बाद मेरे यथार्थ को?
मैं किसान हूँ...
खेतों में उपजी गैर जरूरी
खरपतवारो की भाँति ही
उखाड़ फेंकता हूँ मैं उनको
उनके कच्चे शैशव में ही
और बचा पाता हूँ मेरे यथार्थ को!
मैं किसान हूँ...
मैं जर्रा जर्रा धुन लेता हूँ
अस्थि पंजर-से शरीर का
कि बन पाऊँ गंगाजल
अपने कुमलहाते परिवार का
हाय! श्रम-वारि से सिंचित
क्यों अन्न सस्ता बिकता है
किसान हित में ऊपर वाला
क्यों फूटी किस्मत लिखता है?
मैं खुद को भी यदि गाड़ दूं
धान के पौधे जैसा खेत में
और फुट पड़े नन्ही कोपल
मेरे अंग अंग हर एक से
मेरी रूह से सिंचित फलों को
क्या बेच सकोगे बाजार में
तुम सोने-से भाव पर?
यूं रहमत कर पाओगे मेरे परिवार पर?
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